मत्स्येंद्रनाथ
नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए। कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कुल का अर्थ है शक्ति और अकुल का अर्थ शिव। मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे।
प्राचीनकाल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने पहली दफे व्यवस्था दी।
गोरखनाथ ने इस संप्रदाय के बिखराव और इस संप्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गए हैं जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिंद्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगाव के ग्राम मायंबा गांव के निकट है।इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं तथा गोरक्षनाथ दसवीं शताब्दी के पूर्व उत्पन्न कहे जाते हैं। गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की स्थिति आठवीं शताब्दी (विक्रम) का अंत या नौवीं शताब्दी का प्रारंभ माना जा सकता है। सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित 'कौल ज्ञान निर्णय' ग्रंथ का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं। मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताए गए हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए। शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथ के अनुसार 200 ईसा पूर्व मत्स्येन्द्रनाथ हुए थे।
नवनाथांची जागृत स्थाने ‘जे पिंडी ते ब्रम्हांडी ‘ ह्या मुलभूत संकल्पनेवर आधारलेल्या नाथ संप्रदायात यात्रा,वारी आदींना महत्व नसले तरी ह्या संप्रदायातील इष्ट दैवतांच्या ओढीने सामान्य भाविक भेटी साठी सदैव उत्सुक असतो. ह्या संबधाने पाहिल्यास श्री नवनाथ भक्तिसार ह्या ग्रंथात नवनारायणांचे नवनाथांच्या स्वरूपातील अवतार कार्याच्या समाप्तीनंतर ज्या ठिकाणी वास केला त्या स्थानांची माहिती वाचावयास मिळते .अध्याय ४० श्री नवनाथ भक्तिसारशके सतराशे दहापर्यंत | प्रकटरूपे मिरवले नाथ | मग येउनी आपुले स्थानात | गुप्तरूपे राहिले ||९४||मठीत राहिला कानिफाजती | उपरी मच्छिंद्रासी मायबाप म्हणती | जानपीर तो जालंदर जती | गर्भगिरी नांदतसे ||९५||त्याहुनी खालता गैबीपीर | तो गहनीनाथ परम सुंदर | वडवाळ ग्रामी समाधीपर | नागनाथ असे की ||९६||विट ग्रामी मानदेशात | तेथे राहिले रेवणनाथ | चरपट चौरंगी अडबंगी तीर्थ | गुप्त अद्यापि करिताती ||९७||भर्तरी राहिला पाताळभूवनी | मीननाथ गेला स्वर्गालागोनी | गिरनार पर्वती गोरक्षमूनी | दत्ताश्रमी राहिला ||९८||गोपीचंद आणि धर्मनाथ ते स्वसामर्थे गेले वैकुंठात | विमान पाठवोनी मैनावतीते घेउनी
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